डाँगी भाषा और बोली

जार्ज अब्राहन ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया के वौल्यूम – IX पार्ट-3, इण्डो आर्यन सेन्ट्रल ग्रुप प्रथम संस्करण-1907 सं॰-19 भारतीय आर्य परिवार पश्चिमी हिंदी भरतपुर, रिसायत अंग की अविकसित बोलियाँ शीर्षक के सर्वेक्षण के अनुसार वर्णन किया है कि करोली राज्य चम्बल नदी और जयपुर के बीच में है। ये आधुनिक भारत में भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले प्रथम भाषा वैज्ञानिक थे। ये 1884 से लेकर 1928 तक भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी थे। जार्ज अब्राहन गियर्सन के निर्देश में कुल 364 भारतीय भाषा और बोलियों का विस्तृत सर्वेक्षण किया गया।

हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़ाव ब्रजभाषा, डांगी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, शौरसेनी, मागधी, पालि, प्राकृत और संस्कृत से है। किन्तु राजस्थानी भाषा जो आर्य भाषा की एक शाखा मानी गयी है, वह सारे राजस्थान और मालवा प्रांत की भाषा है। यह मध्य प्रांत, सिन्ध तथा पंजाब में कुछ भागों में भी बोली जाती है। इसके पूरब में ब्रजभाषा, डांगी और बुन्देली, दक्षिण में बुन्देली, मराठी तथा गुजराती, पश्चिम में सिधी और हिन्द की (लहँदा) एवं उत्तर में लहँदा, पंजाबी और बांगड़े भाषाओं का प्रचार है। पंजाब में जो आकर डांगी बसे वे सभी डांगी भाषा का ही प्रयोग करते थे। जनसाधारण की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत को भी विद्वानों ने दो भागों में विभक्त किया। पहली प्राकृतों और दूसरी प्राकृतों। पहली प्राकृतों का प्रतिनिधित्व पालि तथा अर्द्ध मागधी करती है। जिसे बौद्धों और जैनों ने अपनाया और इन्हीं भाषाओं में इनके ग्रंथ लिखे गए। दूसरी प्राकृतों का प्रतिनिधित्व शैरसेनी, मागधी और मोहाराष्ट्री मुख्य रूप से कालान्तर में एक नवीन भाषा अप्रभंश का रूप लिया।

अपभ्रंश का प्राकृत चन्द्रिका ग्रंथ के अनुसार सताईस भेद गिनाए हैं। विक्रम की छठी -सातवीं शताब्दी से लेकर 10-11वीं शताब्दी तक इन अप्रभंशों का देशके विभिन्न भागों में प्रचार रहा। इसकी भी वही गति हुई। इसके भी दो रूप हुए। एक जिसमें साहित्य रचना होती थी, दूसरी जो सर्वसाधारण में प्रचार था। राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ है, जिनमें कोई विशेष अंतर नहीं है। वे सिर्फ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों व प्रदेशों में बोली जाती हैं। ये मुख्य बोलियाँ हैं- मारवाड़ी, मालवी, मेवाती, डांगी, बागड़ी ओर ढूंढाड़ी। मारवाड़ी का प्राचीन नाम मरूभाषा कहलता था, जो जोधकर, बीकानेर, जैसलमेर और सिरोही राज्यों में प्रचलित है। अमजेर-मरवाड़ा, किशनगढ़ और पालणपुर के कुछ भागों तथा जयपुर के शेखावटी, सिंघ के थोड़े भाग और पंजाब की दक्षिण में बोली जाती है। मारवाड़ी का विशुद्ध रूप जोधपुर और उसके आसपास बोली जाती है। इसमें संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द विशेष मिलते हैं। कुछ अरबी और फारसी के शब्द भी सम्मिलित हो गये हैं। मारवाड़ी में सोरठा छंछ और रागों में माँड राग जितना इस भाषा में मिलता है उतना भारत के किसी अन्य प्रंातीय भाष में नहीं। मारवाड़ी की एक उप बोली मेवाड़ी है जो मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेशांे के कुछ प्रदेशों में बोली जाती है। चित्तौड़गढ़ के कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति में लिखा है कि महाराणा कुभा ने चार नाटक बनाये जिनमें मेवाड़ी भी प्रयोग (1490-1525 के बीच) किया था।

ढूंढाड़ी

जयपुर के शेखावटी प्रदेश को छोड़कर सारे जयपुर राज्य लावा, किशनगढ़-टोंक के अधिकांश भागों और अजमेर-मेरवाड़े के उत्तर पूर्वी भाग में बोली जाती है। इस पर गुजराती और मारवाड़ी दोनों का प्रभाव समान रूप से है। कुछ ब्रजभाषा की भी विशेषताएँ होती है। ढूंढारी में प्रचुर साहित्य उपलब्ध हैं। संत दादू और उनके शिष्यों तथा प्रशिष्यों की रचनाएँ इसी भाषा में उपलब्ध है- जो गद्य और पद्य दोनों में मिलती है। ईसाइयों ने भी बाइबिल आदि अपने धर्मग्रंथों का अनुवाद धर्म प्रचारकों ने इसी भाषा में कर इसकी संबृद्धि की।

ढूंढारी का जो रूप बूंदी-कोटा में देखा जाता है वह हाड़ोती नाम से प्रसिद्ध है। इसमें और ढूंढारी में भाषा में अन्तर बड़ा नाम मात्र का मिलता है।

मालवी

यह पूरे मालवा प्रांत की भाषा है। इसमें मारवाड़ी और ढंूढारी दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। कहीं-कहीं मराठी का भी प्रभाव मिलता है। मालवी अत्यधिक मधुर भाषा है। यह स्त्रियों के मुख से निकली भाषा अत्यंत कर्णप्रिय होती राजपूतों में इसका एक विशेष रूप कांगड़ी भी है। यह कर्कश है। चन्द्रसखी, नटनागर की रचनाओं में इसका रूप मिलता है।

मेवाती

यह अलवर-भरपुर राज्य के उत्तर-पश्चिम भाग और दिल्ली के दक्षिण गुुड़गाँव में बोली जाती है। इस भाषा क्षेत्र के उत्तर में बांगड़, पश्चिम में मारवाड़ी और ढूंढारी तथा संपूर्ण दक्षिणें में डाँगी भाषा और बोली का प्रचलन है। इसके पूरब में सटे अथवा जुड़े ब्रजभाषा काप्रभाव है।

डाँगी

यह करौली, जयपुर के क्षत्र में विशेष रूप से बोली जाती है। डाँगी राजस्थानी में परिवर्तितहोने की प्रक्रिया में ब्रजभाखा के तत्व होते हैं। ब्रज क्षेत्र के दक्षिण की प्रामाणिक बोली में एक रुप मिलता है जो डांगी बोली में ग्रहण किया गया है। भरतपुर के मध्य में इसके प्रभाव का विशेष उल्लेख है। डांगी में भाषागत विशेषताओं के प्रारंभिक चिन्ह विशेष रूप से दिखलाई पड़ते हैं। यह पश्चिम दिशा में क्रमशः बढ़ते ही जाते हैं और अंततः गुजराती में पूर्णतः विकसित हो जाते हैं। गुजराती का व्याकरिणक तत्व जयपुर की डांगी बोली में दृष्टिगत होता है। डांगी में संबंध कारक को अधिकरण में रखकर संप्रदान की स्पष्टतः रचना कर ली जाती है जैसे ‘मेरो’ (मेरा) से अधिकरण ‘मेरे’ (मुझको) बनता है। डांगी में ‘अर’ या ‘इर’ पसर्ग जोड़ा या लगाया जाता है जैसे मारकर मारर या मारिर। आदि।

करौली में डांगी भाषा-भाषियों की संख्या लाखों में है। यहां इसका स्वरूप अविकसित ब्रजभाखा का है। यथा बालिक (बालक) सूरिज (सूरज) मौड़ा, मोड़ा, मोड़ा या मुड़ा (पुत्र) चल्यो, चल्यों (चला गया), सूहर (सुअर) घोड़ौ (घोड़ा), वैयो, वैया (माँ),पुरिख (एक पिता) पुरिखा (बहुवचन) में। उसी प्रकार जनेन (एक व्यक्ति)। मुझसे चला नहीं जाता-डांगी भाषा में मो पे डिग्यौ नाने जात। इसका अर्थ मैं नहीं जा सकता भी है। पानी सूख गया- पान्यो सूखि-गयौ, अकाल पड़ा, सूखा-काल पर्यो आदि। कुछ प्रायोगिक शब्द का नमूना देखें-जैसे भैंसा (कट्ठान) पशुशाला (खिरक) लड़ना (घुर) अच्छा या सुन्दर को छट्टा, बछड़ा-बछिया-जोगरो, दाजू (पिता) डोल (घूमना), ठठरो (ठठेरा), देखना (ढूंक ले), टरक दे (चला जाना), न्यार फूस (चारा, भूसा), बैरबानी (स्त्री, पत्नी), भिआ (भाई), भायलो (मित्र), मलूक (सुन्दर), लागन (बैर), बड़ा (लोठा) आदि इसके उदाहरण हैं।
ब्रजभाखा डांगी करौली राज्य में ज्यादा प्रमुख है। यह भाषा पश्चिमी हिन्दी के अंतर्गत आता है और यहाँ के वासी सभी भारतीय आर्य परिवार माने जाते हैं, जो केन्द्रीय वर्ग में आते हैं।

जयपुर की डांगी

जयपुर की वास्तविक डांगी भरतपुर तथा करौली की सीमाओं पर राज्य के उत्तर-पश्चिमी कोने में प्रचलित हैं। भरतपुर राज्य की बोली से इसका सूत्र जड़ा हुआ है। वास्तवकि डांगी के पश्चिमी में अलवर की दक्षिणी सीमा के साथ-साथ एक मिश्रित बोली का व्यवहार होता है जिसके माध्यम से डांगी क्रमशः जयपुरी में परिवर्तित हो जाती है। इसे भी डांगी के अंतर्गत लिया जा सकता है। इस क्षेत्र में डांगी भाषा-भाषियों की संख्या सर्वाधिक है। वास्तविक डांगी बोलने वालों की संख्या लाखों में और मिश्रित डांगी बोलने वाले की संख्या करोड़ो में है।

सभी जयपुरी बोलियों के समान वास्तविक डांगी बोली में भी ब्रज में पाये जाने वाले दंत्य ‘‘न‘‘ की अपेक्षा दृढ़तापूर्वक उच्चरित मूध्न्यि ‘‘ण‘‘ की व्यवहार होता है।

बलाघांतहीन अक्षर में आने पर ‘अ‘ वर्ण ‘इ‘ में परिवर्तित हो जाता है अथवा हो सकता है जैसे- बालक-बालिका, पोखर-पोखिर, ठाकुर-ठाकर आदि। संकोचन में लहुड़ो (छोटा) के लिए ‘ल्होड़ो‘ का व्यवहार होता है।

करौली की डांगी भाषा के समान संज्ञाओं के रूप अधिक होते है और विकृत बहुवचन रूप में दीर्घ स्वर भी विशेष सुरक्षित रहता है।

व्यवहार के शब्द निम्न है- सोना (सोनू), पुरूष (जणु), नौकरन (नौकरो), छौड़ो (लडको), बहुवचन छोड़ी-‘‘छोरीन‘‘। अरना-करबो, देना-देबो, लेना-लेबो आदि डांगी बोली अथवा डांगी भाषा के शब्द है। ये सारे तथ्य भारत का भाषा सर्वेसण ब्रज भारवा डांगी (पश्चिमी हिन्दी, केन्द्रीय वर्ग) श्री जो० मेकेलिस्टर की खोज पर आधारित है।

सं-19

भारतीय आर्य परिवार पश्चिमी हिन्दी (भरतपुर रियासत) ब्रजभारवा (अँग की अविकसित बोलियाँ) – पृष्ठ- 180-187

सं-2

भारतीय आर्य परिवार केन्द्रीय वर्ग
पश्चिमी हिन्दी
ब्रजभारा (डांगी) (करौली राज्य)
पृष्ठ – 187-188
जयपुर की डांगी – पृष्ठ- 189-192

सं-22-23

भारतीय आर्य परिवार केन्द्रीय वर्ग
पश्चिमी हिन्दी (जयपुर राज्य)
ब्रज भारवा (डांगी)
(श्री जी० मैकेलिस्टर, एम०ए०) पृष्ठ-193-194
अँग-भँग – पृष्ठ-195

कोटा तथा करौली की सीमाओं पर जयपुर राज्य के दक्षिणी-पूर्वी कोने में अँग-भँग का प्रचलन है, जो डांगी से कालीमाल तथा करौली की डांगी द्वारा पृथक हो जाती है। इसके भाषा भाषियों की तत्कालीन अनुमानित संख्या- 80,363 बतायी है।

सं०-24-25

पृष्ठ- 198-199
ब्रजभाषा (डाँग भाँग) पश्चिमी हिन्दी (जयपुर राज्य)
(श्री जी० मेकेलिस्टर, एम ए)

कालीमाल

कालीमाल जयपुर राज्य में करौली की सीमाओ पर डाँगी के बिल्कुल दक्षिण में डाँगी तथा डाँग-भाँग के बीच बोली जाती है। इसके भाषा-भाषियों की संख्या 81,216 है। यह अंगभांग से बहुत मिलती जुलती है। उदाहरणर्थ- मेरा-म्हारो और मेरो तेरा-थारो और तेरो, तुम्हारा – तमारो यह या वह- ‘वा‘ या ऊँ (बहु०-ऊन)तथा कौन? कोण।

उूँगर-वाड़ा

जयपुर में उूँगर पहाड़ी को कहते है। इस राज्य डूँगर-वाड़ा का अर्थ पहाड़ी क्षेत्र की बोली से है। 1,08,766 की जनसंख्या द्वारा प्रयुक्त उूँगर-वाड़ा डाँगी के दक्षिण-पश्चिम और काली माल के बिल्कुल उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में प्रचलित है। कालीमाल से इसकी भिन्नता जयपुरी से अधिक प्रभावित होने के कारण है।

उूँगर-वाड़ा में कालीमाल के विपरीत संप्रदानकारक के लिए ‘कं-ताई‘ परसर्ग का व्यवहार होता है, ‘‘थमारो‘‘ तुम्हारा तथा ‘कुण‘ कौन? का पर्याय है, अस्तित्वसूचक क्रिया मे ‘हूँ‘ तथा ‘हो‘ की अपेक्षा जयपुरी रूप छूं(वर्तमान) एवं छो (भुत) प्रयुक्त होते है और क्रिया बहुवचन के साथ कभी डाँगी और कभी जयपुरी के ढँग से जुड़ती है।

हिंदी डांगी (करौली) डांगी (जयपुर)
(करौली की डांगी से भिन्न)
कालीमाल (जयपुर)
(जयपुर की डांगी से भिन्न)
डूँगर-वाड़ा (जयपुर)
(जयपुर की डांगी से भिन्न)
डांगभांग
(जयपुर की डांगी से भिन्न)
1. एक एक
2. दो दो
3. तीन तीन
4. चार च्यारि च्यार
5. पाँच पाँच
6. छः छं छुड़
7. सात सात
8. आठ अठ
9. नौ नौ
10. दस दस
बीस बीस
पचास पचास
सौ सका सौ सो सो
मै हूँ, हो मै मैं, हूँ मैं हूँ
मेरा मेरौ मेरो म्हारो म्हारो
हम हम
हमारा हमारौ, हमरो हमारो
तू तू, तै तू
तेरा तेरौ तेरो थारो थारो
तुम तुम तम
तुम्हारा तुमारौ, तुमरौ, तियारौ तुमरो, त्थारो तमारो थमारो तुमारो
वह वो ऊ, वा, व्ह् वा, ऊँ वा वा
उसका वा-कौ वा-को ऊँ-को ऊ-को ऊँ-को
वे वे वे वै,वे वै
उनका विन-की, उन-की उन-को ऊन-को ऊन-को
हाथ हात् हात्
पैर पाम पाँव पग पग पाँव, पग
नाक नाक
आँख आँख
मुँह मोड़हौ मोहरो म्होड़ो, म्हूँ म्हूँडो मूंडो,म्हाड़ो
दाँत दाँत
कान कान
बाल रोंगटा बाल बार
सिर मूंड़ मूंड़ माथो माथो माथो
जीभ जीभ जीब जीब जीब
पेट पेट
पीठ पीठि पीठ पीठ, मँगर मँगर मोर
लोहा लोह, लँकर लोह ल्हो ल्हो लो
सोना सुत्रो सोनू सोनो
चाँदी चाँदी, रूपी चाँदी
पिता दाजू, दाऊ दाऊ बाप, दाऊ बाप, दादो बाप
माँ मैयो मैयो मा मा, माई मा
भाई भिआ, भेकेड़ी भिआ भाई भाई भाई
बहन भैनो जीजी भैण, जीजी भैण भैण
पुरूष मानिख, मोट्यार मोट्यार आदमी, मोट्यार, मर्द आदमी, मानख
स्त्री बैयर, बैरबानी बैरबानी बैरबानी लुगाई, बैरबानी
पत्नी लुगाई, बैरबानी भौटीया बैरबानी, औरत लुगाई लुगाई, भऊ
बालक बालिक, छोटा बालिक बच्चा, बालक बालक बच्चो
पुत्र मोँड़ा बेटा, छोरा, लाला छोरो, बेटो बेटो, छोरो बेटो, लड़को, छोरो
पुत्री मोँड़ी बेटी, छोरी, लाली छोरीे, बेटी बेेटी, छोरी बेटी, लड़की, छोरी
दास बन्दोरा बांदो
चरवाहा भेड़ि-वारौ, छिर-वारौ गवाल गुवार
ईश्वर राम-जी, ईसुर परमेसुर राम-जी, परमेसुर भगवान् राम-जी, भगवान्
प्रेत पिरेत भूत रांकस,भूंत, पलीत रांकस,भूंत, जन्द
सूर्य सूरिज सूरज-नारान सूरज सूरज सूरज
चंद्रमा चंदा चाँद चाँद चाँद, चंदरमा
तारा तरैयाँ तारो तारो तारो
आग आँच आग आग आग, अग्नि, बसांदर
पानी पान्यों पाणी पानी
घर बारिवर घर
घोड़ा घोरौ घोड़ा घोरो घोड़ा घोड़ा
गाय गैया, टाली गायअ
कुत्ता कुकरा कुत्ता कुत्तो कुकरो कुत्तो, गंडक
बिल्ली बिल्लो बिलिया बिल्ली बलाई बिल्याई, बलाई
मुर्गा मुर्गा कुकरा मुर्गा मुर्गे मुर्गे
बतख बतक
गदहा गदहा घदो घदो
ऊँट ऊँट
चिड़िया छरेरू चिड़िया चिड़ी चिड़ी चड़ी
खा खयबो खा
बैठ बैठिवो बैठ
खड़ा हो ठरीबो, डटीबी ठाड़े हो उबा है उबो हो उबो हो
कौन कौन, को कौण कौन कुण कुण
लेकिन परी पणी पण पणे पण
यदि जौ जै जो जे जो
हाँ हाँ हाँ
नहीं ना,नै नहीं नयी नहीं नयी
एक पिता दाजू दाउ बाप बाप बाप
एक पुत्री मोड़ी छोरी
पुत्रियाँ भौतपाण्डी छोरी छोरी, छोरया
पुत्रियों का मोड़नीको छोरीको
एक भली स्त्री एक चोखी बैरबानी एक भली बैरबानी एक चोखी बैरवानी एक आछी लुगाई
एक बुरा लड़का एक बण्ड मोड़ा एक बुरो छोरा एक बुरो छोरा एक बुरो छोरा एक बुरो छोरा
एक बुरी लड़की एक बुरी मोड़ी एक बुरी छोरी एक बुरी छोरी
अच्छा मलूक, चोकी आछ्यो, भलो चोकी, आछ्यो चोखी, आछयो